आचार्य श्रीराम शर्मा >> मरणोत्तर श्राद्ध-कर्म-विधान मरणोत्तर श्राद्ध-कर्म-विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
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इसमें मरणोत्तर श्राद्ध-कर्म विधानों का वर्णन किया गया है.....
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क्रम व्यवस्था
श्राद्ध संस्कार में देवपूजन एवं तर्पण के साथ पंचयज्ञ करने का विधान है। यह पंचयज्ञ , ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, एवं मनुष्ययज्ञ है। इन्हें प्रतीक रूप में “बलिवैश्व देव” की प्रक्रिया में भी कराने की परिपाटी है। वैसे पितृयज्ञ के लिए पिण्डदान, भूतयज्ञ के लिए पंचबलि, मनुष्ययज्ञ के लिए श्राद्ध संकल्प आदि का विधान है। देवयज्ञ के लिए सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन-देवदक्षिणा संकल्प तथा ब्रह्मयज्ञ के लिए गायत्री विनियोग किया जाता है। अन्त्येष्टि करने वाले को प्रधान यजमान के रूप में बिठाया जाता है। विशेष कृत्य उसी से कराये जाते हैं। अन्य सम्बन्धियों को भी स्वस्तिवाचन, यज्ञाहुति आदि में सम्मिलित किया जाना उपयोगी है।
प्रारम्भ में षट्कर्म के बाद संकल्प कराएँ। फिर रक्षाविधान तक के उपचार करा लिए जाते हैं। उसके बाद विशेष उपचार प्रारम्भ होते हैं।
प्रारम्भ में यम एवं पितृ आवाहन-पूजन करके तर्पण सम्पन्न कराया जाता है। तर्पण के बाद क्रमश: ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ एवं मनुष्ययज्ञ के उपचार कराए जाने चाहिए।
इन यज्ञों के बाद अग्नि स्थापना करके विधिवत् गायत्री यज्ञ कराएँ। स्विष्टकृत आहुति के पूर्व विशेष आहुतियाँ कराई जाएँ। उसके बाद स्विष्टकृत, पूर्णाहुति आदि सम्पन्न कराते हुए समय की सीमा को देखते हुए यज्ञ समापन के उपचार संक्षेप यो विस्तारपूर्वक कराये जाने चाहिए।
विसर्जन के पूर्व दो थालियों में भोजन सजाकर रखें। इनमें देवों और पितरों के लिए नैवेद्य अर्पित किया जाए। पितृ नैवेद्य की थाली में किसी मान्य वयोवृद्ध अथवा पुरोहित को भोजन करा दें और देव नैवेद्य किसी कन्या को जिमाया जाए। विसर्जन करने के पश्चात् पंचबलि के भाग यथास्थान पहुँचाने की व्यवस्था करें। पिण्ड नदी में विसर्जित करने या गौओं को खिलाने की परिपाटी है। इसके बाद निर्धारित क्रम से परिजनों, कन्या, ब्राह्मण आदि को भोजन कराएँ। रात्रि में संस्कार स्थल पर दीपक रखें।
॥ पवित्रीकरण ॥
बायें हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढक लिया जाए। मंत्रोच्चारण के बाद उसे सिर तथा शरीर पर छिड़क लिया जाए।
ॐ अपवित्रः पवित्र वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः , पुनातु पुण्डरीकाक्षः , पुनातु। -सं० प्र०
॥ आचमन ॥
वाणी, मन और अन्त:करण की शुद्धि के लिए तीन बार आचमन करें-
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा॥१॥
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा॥२॥
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि, श्रीः श्रयतां स्वाहा॥३॥
- आश्व गृ० सू० १.२४ मा० गृ० सू० १९
॥ शिखावन्दन ॥
दाहिने हाथ की अँगुलियों को गीला कर शिखा स्थान का स्पर्श करें-
ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ -सं० प्र०
॥ प्राणायाम ॥
अब निम्न मन्त्र से एक बार प्राणायाम करें-
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ॥
- तै० आ० १०.२७
॥ न्यास ॥
बायें हाथ की हथेली में थोड़ा सा जल लेकर दाहिने हाथ की अँगुलियों से निम्न मन्त्रों द्वारा शरीर के अंगों का स्पर्श करें और भावना करें कि हमारे अंग-प्रत्यंग शक्तिशाली, पवित्र और तेजोमय हो रहे हैं
ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु। (मुख को)
ॐ नसोर्ने प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)
ॐ ऊर्वोमें ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीरपर)
पा० गृ० सू० १.३२५
॥ पृथ्वी पूजन ॥
निम्न मन्त्र द्वारा पृथ्वी पर जल चढ़ा कर उसका पूजन करें-
ॐ पृथ्वि ! त्वया धृता लोका, देवि ! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम्॥ -सं० प्र०
॥ कुशपवित्री धारण॥
कुशाएँ पवित्रता की प्रतीक मानी गयी हैं। ये पवित्र प्रयोजनों में प्रयुक्त होती हैं। उसकी बनी अँगूठी को पवित्री कहते हैं। इसे अँगूठी की तरह अनामिका अँगुली में मन्त्र के साथ पहना दिया जाता है, भावना की जाती है। कि पवित्र कार्य करने के पूर्व हाथों में पवित्रता का संचार किया जा रहा है।
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः, प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण, पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य, यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥-१.१२
॥ संकल्प ॥
दाहिने हाथ में यव, अक्षत-पुष्प लेकर संकल्प करें-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वत मन्वन्तरे, भूलेंके, जम्बूद्वीपे, भारतवर्षे, भरतखण्डे, आर्यावर्तान्तर्गते, अमुक क्षेत्रे मासानां मासोत्तमेमासे अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुक वासरे अमुक गोत्रोत्पन्नः अमुक नामाहं अमुक नामकमृतात्मनः प्रेतत्वनिवृत्तिद्वारा अक्षय्यलोक- अवाप्तये स्वकर्त्तव्यपालनपूर्वकं पितृणाद् आनृण्यार्थं सर्वेषां पितृणां शान्तितुष्टिनिमित्तं (पंचयज्ञसहितं ) श्राद्धकर्मअहं करिष्ये।
॥ रक्षासूत्र ॥
तत्पश्चात् निम्न मन्त्र बोलते हुए रक्षा सूत्र बाँधे-
ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ यजु० १९.३०
॥ चन्द्रधारा ॥
मस्तिष्क को शान्त, शीतल एवं सुगन्धित रखने की आवश्यकता का स्मरण कराने के लिए चन्दन धारण किया जाता है । निम्न मन्त्र बोलते हुए चन्दन-तिलक लगाएँ-
ॐ चन्दनस्य महत्पुण्यं, पवित्रं पापनाशनम्।
आपदां हरते नित्यं, लक्ष्मीस्तिष्ठति सर्वदा॥
॥ यज्ञोपवीतधारण ॥
निम्न मन्त्र बोलकर नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्यं प्रतिमुञ्च शुभं , यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
- पार गृ० सू० २.२.११
॥ जीर्णोपवीत विसर्जन ॥
निम्न मन्त्र पाठ करते हुए पुराना यज्ञोपवीत गले में से निकालना चाहिए।
ॐ एतावद्दिनपर्यन्तं, ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथा सुखम्॥
॥ कलशपूजन ॥
निम्न मन्त्र बोलते हुए अक्षत, पुष्प, जल से कलश देवता का पूजन करें-
ॐ तत्त्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानः, तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः।
अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश ४, समानऽआयुः प्रमोषीः॥
ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य, बृहपतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ
समिमं दधातु। विश्वेदेवासऽइह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ।
ॐ वरुणाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीप, नैवैद्यं समर्पयामि।
ॐ कलशस्थ देवताभ्यो नमः। ततो नमस्कारं करोमि॥
ॐ कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थितो ब्रहता, मध्ये मातृगषाः स्मृता॥१॥
कुक्षौ तु सागराः सर्वे, सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः, सामवेदो ह्यथर्वणः ॥२॥
अंगैश्च सहिताः सर्वे, कलशन्तु समाश्रिताः।
अत्र गायत्री सावित्री, शान्ति- पुष्टिकरी सदा॥३॥
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि, त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।
शिवः स्वयं त्वमेवासि, विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः॥४॥
आदित्या वसवो रुद्रा, विश्वेदेवाः सपैतृकाः।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि, यतः कामफलप्रदाः॥५॥
त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं, कर्तुमीहे जलोद्भव।
सान्निध्यं कुरु मे देव ! प्रसन्नो भव सर्वदा॥६॥
॥ दीपपूजन ॥
कलश के साथ दीपक भी पूजा वेदी पर रखा जाता है। इसे सर्वव्यापी चेतना का प्रतीक मानकर मन्त्रोच्चारण के बाद अक्षत, पुष्प पूजा वेदी पर समर्पित कर पूजन करें-
ॐ अग्निज्योंतिज्योतिरग्निः स्वाहा।
सूर्यो ज्योतिज्र्योतिः सूर्यः स्वाहा।
अग्निर्वच्च ज्योतिर्वच्चैः स्वाहा।
सूर्यो वच्च ज्योतिर्वच्चैः स्वाहा।
ज्योतिः सूर्य्यः सूर्यो ज्योतिःस्वाहा। -३९
॥ गुरुपूजन ॥
परमात्मा की दिव्य चेतना का वह अंश जो साधकों का मार्गदर्शन और सहयोग करने के लिए व्यक्त होता है।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।
गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥१॥
अखण्डमण्डलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥२॥-गु० गी०४३४४
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धा-प्रज्ञायुता च या॥३॥
ॐ श्री गुरवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
॥ गायत्री पूजन ॥
वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता-सद्ज्ञान, सद्भाव की अधिष्ठात्री सृष्टि की आदि कारण मातेश्वरी।
ॐ आयातु वरदे देवि ! त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायत्रिच्छन्दसां मातः, ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥ -सं० प्र०
ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
ततो नमस्कारं करोमि-
ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता,
प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशु, कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्।
मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्। - अथर्व० १९७१.१
॥ सर्वतीर्थ आवाहन ॥
तीर्थ पवित्रता और तेजस्विता युक्त चेतन प्रवाह को कहते हैं। भावभरी आराधना तथा निष्ठायुक्त तपस्या के प्रभाव से वह दिव्य प्रवाह जब किसी स्थान विशेष या व्यक्ति विशेष में अवतरित होता है तो उसके साथ ‘तीर्थ विशेषण जोड़ दिया जाता है। जब कहीं भाव भरा आवाहन किया जाता है। तो परमात्म चेतना की तरह तीर्थ चेतना भी वहाँ प्रकट अथवा जाग्रत् हो जाती है। तीर्थ अवतरण अथवा जागरण प्रक्रिया ही तीर्थ आवाहन है।
दाहिने हाथ में अक्षत पुष्प कुश लेकर तीर्थ का आवाहन करें-
ॐ गयादीनि च तीर्थानि, ये च पुण्याः शिलोच्चयाः॥
कुरुक्षेत्रं च गंगा च, यमुना च सरिद्वरा॥
कौशिकी चन्द्रभागा च, सर्व पापप्रणाशिनी।
नंदाभद्राऽवकाशा च, गण्डकी सरयूस्तथा॥
भैरवं च वराहं च तीर्थं पिण्डारकं तथा।
पृथिव्यां यानि तीर्थानि, चत्वारः सागरास्तथा॥
प्रेतस्यास्य प्रशान्त्यर्थं, अस्मिंस्तोयेविशन्तुवै।
ॐ तीर्थ देवताभ्योनमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥
॥ सर्वदेवनमस्कार ॥
अब नम: के साथ हाथ जोड़कर सिर झुकाकर सभी देव शक्तियों को नमन वन्दन करते चलें-
ॐ सिद्धि बुद्धिसहिताय श्रीमन्महागणाधिपतये नमः।
ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः। ॐ उमामहेश्वराभ्यां नमः। ॐ वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। ॐ शचीपुरन्दराभ्यां नमः। ॐ मातापितृचरणकमलेभ्यो नमः। ॐ कुलदेवताभ्यो नमः। ॐ इष्टदेवताभ्यो नमः। ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः। ॐ स्थानदेवताभ्यो नमः। ॐ वास्तुदेवताभ्यो नमः। ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः। ॐ सर्वेभ्यस्तीर्थेभ्यो नमः। ॐ एतत्कर्म-प्रधान- श्रीगायत्रीदेव्यै नमः। ॐ पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु।
॥ षोडशोपचार पूजन ॥
अब देव शक्तियों का सोलह पदार्थों से पूजन करें-
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।
आवाहयामि, स्थापयामि॥१॥
आसनं समर्पयामि॥२॥
पाद्यं समर्पयामि॥३॥
अयं समर्पयामि॥४॥
आचमनम् समर्पयामि॥५॥
स्नानम् समर्पयामि॥६॥
वस्त्रम् समर्पयामि॥७॥
यज्ञोपवीतम् समर्पयामि॥८॥
गन्धम् विलेपयामि॥९॥
अक्षतान् समर्पयामि ॥१०॥
पुष्पाणि समर्पयामि॥११॥
धूपम् आघ्रापयामि ॥१२॥
दीपम् दर्शयामि॥१३॥
नैवेद्यं निवेदयामि॥१४॥
ताम्बूलपूगीफलानि समर्पयामि ॥१५
दक्षिणां समर्पयामि॥१६॥
सर्वाभावे अक्षतान् समर्पयामि ॥१७।
ततो नमस्कारम् करोमि-
ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥
॥ स्वस्तिवाचन ॥
हाथ में जल, पुष्प, अक्षत लेकर स्वस्तिवाचन मन्त्र बोलें। यह शान्ति का द्योतक है एवं मंगलमय कार्यों के समय कल्याणकारक है--
ॐ गणानां त्वा गणपति छ हवामहे, प्रियाणां त्वा प्रियपति
हवामहे, निधीनां त्वा निधिपति ४ हवामहे, वसोमम।
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥ - २३.१९
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्ष्योंऽअरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।-२५.१९
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥ - १८.३६
ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः, श्नप्त्रे स्थो विष्णोः, स्यूरसि
विष्णोधुवोऽसि, वैष्णवमसि विष्णवे त्वा॥ -५.२१
ॐ अग्निर्देवता वातो देवता, सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता, वसवो
देवता रुद्रा देवता, ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता, विश्वेदेवा
देवता, बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता॥ -१४:४०
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ४ शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्तिरोषधयः शान्तिः, वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः, सर्व शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि॥-३६.१७
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नऽ आ सुव।
ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः ॥सर्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु। ३०.३
॥ रक्षाविधान ॥
आत्मरक्षा और यज्ञ कार्य की रक्षा के लिए रक्षा विधान किया जाता है। यज्ञ कार्य में आसुरी शक्तियाँ बहुत विघ्न फैलाती रहती हैं। शुभ कार्यों में बहुधा कोई न कोई विघ्न आते रहते हैं, उनसे रक्षा करने के लिए सरसों या चावल को निम्न मन्त्रों से दसों दिशाओं में फेंकें।
ॐ पूर्वे रक्षतु वाराहः, आग्नेय्यां गरुडध्वजः।
दक्षिणे पद्मनाभस्तु, नैर्ऋत्यां मधुसूदनः ॥१॥
पश्चिमे चैव गोविन्दो, वायव्यां तु जनार्दनः।
उत्तरे श्रीपती रक्षेद्, ऐशान्यां हि महेश्वरः ॥२॥
ऊर्ध्वं रक्षतु धाता वो, ह्यधोऽनन्तश्च रक्षतु।
अनुक्तमपि यत् स्थानं, रक्षत्वीशो ममाद्रिधृक् ॥३॥
अपसर्पन्तु ते भूता, ये भूता भूमिसंस्थिताः।
ये भूता विघ्नकर्तारः, ते गच्छन्तु शिवाज्ञया ॥४॥
अपक्रामन्तु भूतानि, पिशाचा: सर्वतो दिशम्।
सर्वेषामविरोधेन, यज्ञकर्म समारो॥५॥
॥ यम देवता-पूजन ॥
यम को मृत्यु का देवता कहा जाता है। यम नियन्त्रण करने वाले को तथा समय को भी कहते हैं। सृष्टि का सन्तुलन-नियन्त्रण बनाये रखने के लिए मृत्यु भी एक आवश्यक प्रक्रिया है। नियन्त्रण-सन्तुलन को बनाये रखने वाली काल की सीमा का स्मरण रखने से जीवन संतुलित, व्यवस्थित तथा प्रखर एवं प्रगतिशील बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है।
क्रिया और भावना- पूजन की वेदी पर चावलों की एक ढेरी यम के प्रतीक रूप में रखें तथा मन्त्र के साथ उसका पूजन करें। यदि समय की कमी न हो, तो कई लोग मिलकर यम-स्तोत्र का पाठ भी करें। स्तुति करने का अर्थ है- उनके गुणों का स्मरण तथा अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करना।
हाथ में यव-अक्षत-पुष्प लेकर जीवन-मृत्यु चक्र का अनुशासन बनाये रखने वाले तन्त्र के अधिष्ठाता का आवाहन करें-पूजन करें। भावना करें कि "यम” का अनुशासन हम सबके लिए कल्याणकारी बने।
ॐ यमाय त्वा मखाय त्वा सूर्यस्य त्वा तपसे।
देवस्त्वा सविता मध्वानक्तु, पृथिव्याः स स्पृशस्पाहि।
अर्चिरसि शोचिरसि तपोऽसि॥
ॐ यमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
ततो नमस्कारं करोमि। - ३७.११।
॥ यम स्तोत्र ॥
ॐ नियमस्थः स्वयं यश्च, कुरुतेऽन्यान्नियन्त्रितान्।
प्रहरिणे मर्यादानां, शमनाय तस्मै नमः॥१॥
यस्य स्मृत्या विजानाति, भंगुरत्वं निजं नरः।
प्रमादालस्यरहितो, बोधकाय नमोऽस्तु ते॥२॥
विधाय धूलिशयनं, येनाहं मानिनां खलु।
महतां चूर्णितो गर्वः, तस्मै नमोऽन्तकाय च॥३॥
यस्य प्रचण्डदण्डस्य , विधानेन हि त्रासिताः।
हाहाकारं प्रकुर्वन्ति, दुष्टाः तस्मै नमो नमः॥४॥
कृपादृष्टिरनन्ता च, यस्य सत्कर्मकारिषु।
पुरुषेषु नमस्तस्मै, यमाय पितृस्वामिने॥५॥
कर्मणां फलदानं हि, कार्यमेव यथोचितम्।
पक्षपातो न कस्यापि, नमो यस्य यमाय च॥६॥
यस्य दण्डभयाद्रुद्धः, दुष्प्रवृत्तिकुकर्मकृत्।
कृतान्ताय नमस्तस्मै, प्रदत्ते चेतनां सदा॥७॥
प्राधान्यं येन न्यायस्य, महत्त्वं कर्मणां सदा।
मर्यादाक्षणं कर्वे, नमस्तस्मै यमाय च॥८॥
न्यायार्थ यस्य सर्वे तु, गच्छन्ति मरणोत्तरम्।
शुभाशुभं फलं प्राप्तुं, नमस्तस्मै यमाय च॥९॥
सिंहासनाधिरूढोऽत्र, बलवानपि पापकृत्।
यस्याग्ने कम्पते त्रासात्, तस्मै नमोऽन्तकाय च॥१०॥
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- ॥ मरणोत्तर-श्राद्ध संस्कार ॥
- क्रम व्यवस्था
- पितृ - आवाहन-पूजन
- देव तर्पण
- ऋषि तर्पण
- दिव्य-मनुष्य तर्पण
- दिव्य-पितृ-तर्पण
- यम तर्पण
- मनुष्य-पितृ तर्पण
- पंच यज्ञ